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आलोचना

आलोचक त्रिलोचन

रविरंजन


"जस आलोचक की भाषा समझ में नहीं आती हो, वह आलोचना किसी काम की नहीं है। रामविलास शर्मा को छोड़कर (रामचंद्र शुक्ल के बाद) ऐसा कोई आलोचक नहीं हुआ जिसकी शब्दावली सहज हो। नामवर सिंह नए-नए शब्दों को ले आते हैं किंतु जैसे शुक्ल जी अपने शब्दों का अर्थ भी खोलते हैं, वह विशेषता किसी में नहीं है। शुक्ल जी बात कहते हैं, और उसमें नया शब्द भी कह जाते हैं किंतु साथ ही उस नए शब्द की व्याख्या करके तब आगे बढ़ते हैं। इससे पाठकों में शब्दों का संस्कार होता है। इस तरह शुक्ल जी संस्कारक भी हैं। यही बात उन्हें उच्चकोटि का बना देती है।" - त्रिलोचन (सर्वनाम - 21; 1991)

'आलोचना भी रचना है' - दोनों का अपना अंतःसंबंध है, जिससे जीवन और साहित्य का निर्माण होता है। इसलिए साहित्य को जीवन की आलोचना की संज्ञा दी जाती है। हमें यह बात गहराई से समझ लेनी चाहिए कि किसी रचना की प्रशंसा करना या भर्त्सना मात्र करना आलोचना का एक बहुत छोटा और संकुचित कर्म है - आलोचना का मुख्य काम साहित्य के उन समस्याओं को चिह्नित करना है जो किसी रचना में उभरती दिखाई पड़ती हैं। साथ ही, जीवन और संसार को बोधगम्य बनाने के क्रम में ही साहित्यिक आलोचना का सृजन होता है। त्रिलोचन की आलोचना-दृष्टि इसी साहित्यिक आलोचना को बोधगम्य बनाकर साहित्यिक भाव से पाठकों के समक्ष रखने का पक्षपाती है। 'रचना-आलोचना' शीर्षक अपने निबंध में उन्होंने इस बात को स्पष्ट करने की कोशिश भी की है, "रचना और आलोचना में तत्वतः अंतर नहीं है। दोनों की समृद्धि जीवन के व्यापक अनुभव से होती है।" (काव्य और अर्थबोध, सं. अवधेश प्रधान; पृ.50) अपने उस अनुभव को रचना में लाना और फिर उसी अनुभव से रचना की परीक्षा करना - यही आलोचना का दायित्व होना चाहिए। हमारा यह भी दायित्व बनता है कि त्रिलोचन के सौ वर्ष पूरे करने पर हम उनकी कविताओं के साथ उनकी आलोचना-दृष्टि पर विचार करें।

अवधेश प्रधान ने त्रिलोचन के आलोचक व्यक्तित्व को पहली बार पहचानने का काम किया। त्रिलोचन के बिखरे पड़े निबंधों को एकत्रित कर उसे 'काव्य और अर्थबोध' पुस्तक के रूप में 1995 में प्रकाशित करवाया। उसकी लंबी भूमिका लिखी जो आलोचक त्रिलोचन को जानने-समझने में हमारी सहायता प्रदान करती है। अवधेश प्रधान ने बिना किसी लाग-लपेट के स्पष्ट शब्दों में लिखा है : "त्रिलोचन, रामचंद्र शुक्ल की लोकदृष्टि के सच्चे उत्तराधिकारी हैं।" (वही, पृ.8) बेशक, त्रिलोचन के लिए रचना-आलोचना काव्यशास्त्र की जड़ता से बहुत आगे निकलकर लोकचेतना के विकास का बौद्धिक संवाहक बन जाती है। गौरतलब है कि हिंदी आलोचना को 'लोकदृष्टि' के मानक पर इतने व्यवस्थित रूप में सर्वप्रथम प्रयोग करने का श्रेय रामचंद्र शुक्ल को ही प्राप्त है। उनकी लोकदृष्टि - जड़ और स्थिर नहीं है बल्कि वह सत्य एवं विकास की रास्ते में गतिशील है। अकारण नहीं वे मनुष्य के सारे बौद्धिक अनुभूतियों को लोकचेतना का अंग मानते हुए यह लिखते हैं कि - "मनुष्य लोकबद्ध प्राणी है। उसकी अपनी सत्ता का ज्ञान तक लोकबद्ध है। लोक के भीतर ही कविता क्या किसी कला का प्रयोजन और विकास होता है।"

वस्तुतः त्रिलोचन का ध्येय आलोचना को रचना से भिन्न न मानते हुए उसे पाठकों की रुचि के अनुरूप ढालने का प्रयत्न है और सही मायने में यही आलोचना की लोकदृष्टि है। त्रिलोचन कहते भी हैं - "आलोचना के नाम पर ऐसी सैकड़ों पुस्तकों का प्रकाशन हुआ है जिसमें छात्रों का हित ध्यान में स्थित है, पुस्तकों के ग्राहक प्रायः छात्र होते हैं। छात्र अपने पाठ्यक्रम में आए नामों आदि को देख कर इस प्रकार की पुस्तकों को खरीद लेते हैं... इस प्रकार की समीक्षाएँ रचनाकारों के काम की हो जाएँ ऐसा कम होता है, पर होता है। रामचंद्र शुक्ल की समीक्षाएँ पूरी रचनात्मक संभावना को प्रकट करने का काम भी करती है। इनसे छात्र भी लाभ उठा सकते हैं और रचनाकार भी। उनके बाद यह काम नंददुलारे वाजपेयी और हजारीप्रसाद द्विवेदी ने किया। इसके बाद यह कार्य रामविलास शर्मा ने किया। इन नामों से यह भ्रम न होना चाहिए कि ये आलोचना के विकास में एक मात्र सहायक हैं। सहस्रनाम जप का महत्व तो है पर उससे बच कर निकलना भी कम उपयोगी नहीं। इनके बाद नामवर सिंह का नाम लिया जा सकता है। ...जैसे, रचना का ह्रास नहीं, विकास माना जाता है वही हाल आलोचना का भी है।" (वही, पृ.53)

त्रिलोचन आलोचना-दृष्टि ही नहीं बल्कि आलोचक-दृष्टि को भी अपने आलोचना-दृष्टि में रखते हैं और उनके अनुसार यही आलोचक या आलोचना का दायित्व होना चाहिए। इसमें वे जहाँ कहीं भी फिसलन देखते हैं उनकी लोक-पाठकग्राही-दृष्टि आलोचक की भूमिका में कुछ यूँ आ जाती है :

"हल्दी लगे न फिटकरी, कहाँ हो सकता है।
अमुक-अमुक कवि ने जमकर जलपान कराया,
आलोचक दल कीर्तिगान में कब थकता है।
दूध दुहेगा, जिसने अच्छी तरह चराया।
आलोचक है नया पुरोहित उसे खिलाओ
सकल कवि-यशः प्रार्थी, देकर मिलो मिलाओ।"

यह कविता अंश त्रिलोचन की 'आलोचक' कविता से लिया गया है जिसमें वे आलोचना के क्षय पर व्यंग्य ही नहीं करते बल्कि कड़ी आलोचना भी करते हैं। यह आलोचना का क्षय दरअसल आलोचक को 'मध्यस्थ' की भूमिका में आ जाने के कारण हुआ है जिसमें आलोचक-संपादक-लेखक तीनों जुड़े हुए हैं। वे किसी विशेष साहित्यिक कृति या प्रवृत्ति के तटस्थ मूल्यांकन को छोड़ उसे 'प्रमोट' करने के अभियान में चलते दिखाई देते हैं। लेकिन त्रिलोचन इस आलोचना को एक सिरे से खारिज करते हैं। उनके लिए आलोचना-रचना का दायित्व पाठक की चेतना का विकास करना है न कि एक गलत मानस पटल का निर्माण।

'गद्य कविनां निकषम् वदंति'

यह लिखते हुए वामन ने क्या पता क्या सोचा होगा! उसने यह तो नहीं सोचा होगा कि 'कवियों गद्य के सपाट विन्यास में कविता लिखकर बताओ तब मानें!' त्रिलोचन की 'तीसरी आँख' वामन के इस कथन को पकड़ती ही नहीं बल्कि हमारे लिए उदाहरण भी प्रस्तुत करती है। त्रिलोचन अपने एक सॉनेट में व्यंग्य के लहजे में ही लिखते हैं जो उनकी रचना-आलोचना की इस चुनौती को अंगीकार करती हुई मालूम पड़ती है -

"गद्य-पद्य कुछ लिखा करो। कविता में क्या है?
आलोचना जमेगी। आलोचक का दर्जा
मानो शेर जंगली सन्नाटे में गर्जा
ऐसा कुछ है। लोग सहमते हैं। पाया है
इतना रुतबा कहाँ किसी ने कभी। इसलिए
आलोचना लिखो। शर्मा ने स्वयं अकेले
बड़े-बड़े दिग्गज ही नहीं हिमालय ठेले,
शक्ति और कौशल के कई प्रमाण दे दिए,
उद्यम करके कोलतार ले लेकर पोता,
बड़े-बड़े कवियों की मुखश्री लुप्त हो गई,
गली-गली में उनके स्वर की गूँज खो गई,
लोग भुनभुनाए घर में, इससे क्या होता!
रुख देखकर समीक्षा का अब मैं हूँ हामी;
कोई लिखा करे कुछ, जल्दी होगा नामी!"

यहाँ आलोचना के गद्य पर व्यंग्य है पर कविता के गद्य और उसके महत्व पर गंभीरता भरी दृष्टि पहली ही पंक्ति में - "गद्य-पद्य कुछ लिखा करो" में आ गई है। यहाँ त्रिलोचन की दृष्टि गद्यात्मकता कविता से है, जिसकी जरूरत पर वे बल देते हैं परंतु आलोचना के गद्य को "शर्मा ने अकेले / बड़े-बड़े दिग्गज ही नहीं हिमालय ठेले" यानी डॉ. रामविलास शर्मा की गद्य की तरह होने को रचना-आलोचना मानते हैं। उनके गद्य की लय को वे भावावेग से आंदोलित नहीं पाते हैं बल्कि उसमें बौद्धिक संयम से अनुशासित एक सर्वग्राही लय फलित होते हुए देखते हैं जिसका निर्माण विवेक संगत निर्णय देकर होता है। यहाँ कोई 'एप्रिसिएशन' नहीं, कोई 'प्रमोट' करने की अवधारणा नहीं है। ठीक इसी प्रकार त्रिलोचन भी अपनी आलोचना में किसी रचनाकार के प्रति रियायत बरतते हुए नहीं दिखाई पड़ते।

अब आते हैं - गद्य-पद्य की भूमिका पर। पहले भी बात हो की जा चुकी है कि त्रिलोचन कविता की गद्यात्मकता को लेकर बहुत सचेत दृष्टि रखते थे। 'हंस' के सितंबर, 1946 के अंक में एक लंबा लेख लिखा 'निराला की नई कविता'; जिसमें उन्होंने गद्यात्मक कविता के महत्व को रेखांकित किया है। त्रिलोचन लिखते हैं, "निराला जी की नई कविताएँ उनकी पुरानी कविताओं से अनेक बातों में भिन्न हैं, पुरानी कविताओं में भाव, भाषा और छंद का जैसा निर्वचन है, नई कविताओं में नहीं है। विषय को भी इधर उन्होंने व्यापक बनाया है। भाषा भी सामान्य बोलचाल की रखी है।" (वही, पृ.98) भाव, भाषा और छंद भले पहले जैसा नहीं है, विषय व्यापक हुई है और भाषा सामान्य बोलचाल की यानी गद्यात्मक हो चली है। आगे इसकी गुणवत्ता पर बात करते हुए वे लिखते हैं, "39 के पहले की रचनाओं में भी निराला जी की दृष्टि-बिंदु सुनिश्चित और स्वच्छंद पाया जाता है। उनकी उनकी तत्कालीन रचनाओं में एक प्रकार की तटस्थ वृत्ति पाई जाती है। इसी तटस्थ वृत्ति के कारण निरालाजी की रचनाओं में समाज के लिए कोई उद्बोधन नहीं पाया जाता। इसके विपरीत नई कविताओं में वे बहुत स्पष्ट और लक्ष्योन्मुख दिखायी देते हैं।" (वही, पृ.99) निश्चित ही गद्य जीवन संग्राम की भाषा है। पद्य जहाँ चरम केंद्रण की भाषा है, वहाँ गद्य तर्क-वितर्क की। त्रिलोचन को निरालाजी की नई कविताएँ 'समाज के लिए उद्बोधन' के कारण प्रतीत होते हैं। इसलिए उनका यह कहना कि 'गद्य पद्य कुछ लिखा करो' - यानी समाज के उद्बोधन में साथ चलो।

गद्य पद्य के इस आग्रह को वे निराला के अलावे भी तत्कालीन कवियों में देखते और भाषा की इस सरलता के प्रति - जो निश्चित ही लोकचेतना, जीवन और उद्बोधन के भाव पैदा कर रहे थे, उनके प्रति उनका यह शब्द : "भाषा की सरलता का आरंभ लगभग 39 से हुआ। हिंदी में 39 के पहले अधिकतर दुर्बोध्य रचनाएँ की जाती थीं। लेकिन 39 से कवियों और लेखकों की दृष्टि सरलता की ओर गई। लेखकों ने अपने को जनता और राष्ट्र के प्रति उत्तरदायी समझा। फलतः भाषा और साहित्य लोक जीवन के निकट आए। यद्यपि अभी साहित्य जीवन के समानांतर नहीं चल रहा है फिर भी चेष्टाशीलता स्पष्ट है। सभी बड़े कवियों ने सिंहासन छोड़कर जनपथ पर विचरण प्रारंभ किया। इसका भविष्य अधिक आशाप्रद है। जब जीवन और साहित्य एक-दूसरे के पूरक हो जाएँगे तब राष्ट्र की शक्ति का विकास होगा। निराला, पंत, दिनकर, नरेंद्र शर्मा, सुमन, बच्चन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे युगचेता भावयोगी कवि अपनी संपूर्ण प्राणशक्ति से देश की मनःशक्ति का उद्बोधन कर रहे हैं।" (वही, पृ.105)

गद्य पद्य संबंधी अपने दृष्टिकोण को त्रिलोचन ने बहुत ही दृढ़ता से रखा, समझा और उसका प्रयोग भी किया। वे जब पचहत्तर के हुए थे तो कवि मंगलेश डबराल ने उनसे बातचीत की थी। उस बातचीत में मंगलेश जी का प्रश्न था : "मुझे लगता है आपकी कविता में गद्य की एक बड़ी भूमिका है, उनका आपस में गहरा रिश्ता है। बल्कि आपने कुछ ऐसी कविताएँ भी लिखी हैं जिन्हें आपने चाहे न कहा हो, दूसरों ने गद्य कविता कहा है।" त्रिलोचन का जवाब जिसमें गद्य-पद्य का लंबा विश्लेषण है, यहाँ उद्धृत करना जरूरी जान पड़ता है। वे मंगलेश जी को कहते हैं : "मैं स्वयं कहता हूँ। गद्य कविता। याद रखिए कि हिंदी में छायावाद युग में गद्य-काव्य लिखा गया। इस गद्यकाव्य में छंदोबद्ध काव्य की शब्दावली और मुहावरे का पूरा असर था। तो मैंने यह चाहा कि भाषा तो एक ही है जिसे छंद में बाँधिए चाहे छंद से छूटने दीजिए, भाषा की लय पकड़िए। लय तो गद्य और पद्य दोनों में होती है। गद्य की लय थोड़ा अलग जाती है, वह अनियंत्रित होती है और पद्य की लय नियंत्रित होती है। कवि वहाँ पंक्ति के अनुवर्तन में है, उसे हर पंक्ति को पूरा करना ही है चाहे भाव हर पंक्ति के पूरा होने के पहले ही खत्म हो जाए।" (जनसत्ता, 23 अगस्त, 1992) इस तरह से त्रिलोचन के आलोचक व्यक्तित्व की उपस्थिति उनके साक्षात्कारों में बड़ी सहजता से होती है और हमें नए-नए 'उपचार' बताकर चली जाती है। और निश्चित ही आलोचक भी साहित्य का वैद्य होता है, जो जड़ित रोगों की तलाश कर उसका स्थायी निदान निकालने की कोशिश करता है। त्रिलोचन साहित्य के वैसे ही वैद्य हैं जो हमारे समय के नाना प्रकार के रोगों की तलाश करते हुए उसके 'उपचार' की क्रिया भी बतलाते हैं।

कविता में 'सहजता' - भाषा और शिल्प के धरातल पर अनेक रूपों में मिलते हैं किंतु उसका सर्वोत्तम निदर्शन भी उसके 'उपचार' के बाद ही पाठकों के सामने आता है। यही 'उपचार' तटस्थ आलोचना-दृष्टि का उन्नत कौशल है जिसमें त्रिलोचन कहीं पर समझौता करते हुए नहीं दिखाई देते। वे वही करते जो सत्य है और संप्रेषणीय है। कहीं पर वे बड़े नाम के 'लेबल' पर नहीं जाते। एक बार कवि केदारनाथ सिंह द्वारा पूछे गए 'भाषा के तथ्य-बहुलता' और 'उनकी कविताओं पर मैथिलीशरण गुप्त के प्रभाव' संबंधी प्रश्न को एक सिरे से खारिज करते हुए बोलते हैं : "मैथिलीशरण गुप्त में संरक्षणशीलता अधिक थी, जो मुझे बिल्कुल पसंद नहीं। इसलिए उनका प्रभाव मुझ पर पड़ ही नहीं सकता था। ...मैं इस संदर्भ में गुप्तजी की अपेक्षा कौशलेंद्र प्रताप सिंह का जिक्र करना चाहूँगा, जिनकी कविताओं में मुझे खड़ी बोली का ठाट अधिक मिलता था।" (आलोचना, जुलाई-सितंबर-1987) स्वभावतः केदार जी कौशलेंद्र प्रताप सिंह की नाम को सुन हक्के-बक्के रह जाते हैं, फिर त्रिलोचन उन्हें बतलाते हैं, "ये इटारसी के रहने वाले थे और उस काल की पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ देखी जा सकती हैं। मुझे वे अच्छी लगती थीं। इससे अधिक कुछ नहीं।" यह कम बड़ी बात नहीं कि त्रिलोचन का आलोचक कौशल मैथिलीशरण गुप्त जैसे बड़े 'लेबल' को अपनी प्रेरणा-शक्ति न मानकर एक अचर्चित नाम कौशलेंद्र प्रताप सिंह को 'खड़ी बोली का ठाट' बतलाता है। ध्यातव्य है कि यहाँ उनकी चिंता कौशलेंद्र प्रताप सिंह को 'प्रमोट' करने की शक्ल में नहीं बल्कि रचना की प्रेषणीयता को पहचानने को लेकर है। असल में किसी भी रचना के लिए प्रत्यक्ष प्रेरणा का स्रोत कुछ और ही होता है और इस प्रेरणा के स्रोत की खोज एक दुष्कर कार्य है जिससे अच्छे आलोचक बचना भी चाहते हैं। क्योंकि इसे ही कामचलाऊ आलोचना कहा जाता है। त्रिलोचन इस कामचलाऊ आलोचना को नजर-अंदाज कर देना ही उचित समझते हैं।

'सब कुछ सब कुछ सब कुछ सब कुछ भाषा'
भाषाओं में अगम समुद्र का अवगाहन
मैं ने किया...
शब्दों में देखा सब कुछ ध्वनिरूप हो गया
मेघों में आकाश घरे कर जी भर गाया
मुद्रा, चेष्टा, भाव, वेग, तत्काल खो गया
सब कुछ सब कुछ सब कुछ सब कुछ भाषा।

त्रिलोचन आलोचना या रचना के लिए 'भाषा' को सबसे अहम वस्तु मानते हैं। मंगलेश डबराल को दिए साक्षात्कार में ही वे कविता में भाषा की शक्ति पर बात करते हुए बोलते हैं : "कविता तभी आएगी जब भाषा का पूरा विकास हो जाएगा। वाल्मीकि को देखिए तो मालूम हो जाएगा कि क्यों वही आदि कवि हैं और वही श्रेष्ठतम कवि हैं। कालिदास आदि उनकी बगल में बच्चे जैसे लगते हैं। दूसरी बात कविता की कोई पॉलिश नहीं है। बाद में तो भाषा की पॉलिश, ख्यालात की पॉलिश - यह कविता से जुड़ती है। यहाँ तक कि लोकगीत भी हो जाएगा, वह जो जनपदीय भाषा होगा, वह जब विकसित होगा, तब आएगा।" (जनसत्ता, 23 अगस्त, 1992) बेशक, प्राचीन भारत में महात्मा बुद्ध ने 'जनभाषा' का प्रयोग किया था। हमारे समय में हिंदी ही नहीं बल्कि सारे संसार में सर्जनात्मकता का स्रोत जनभाषाओं का सशक्तिकरण है। त्रिलोचन का एक बहुत प्रसिद्ध निबंध है - 'जनभाषा और काव्यभाषा' जो 1986 में 'पूर्वग्रह 75' में प्रकाशित हुआ था। इस निबंध में इस बात को गंभीरता से उठाते हुए वे लिखते हैं : "कविता में हर पीढ़ी के कवियों ने भाषा पर विचार किया है और यह विचार आज भी होता रहता है। सवाल है कि ऐसी क्या स्थिति आ जाती है जिसके कारण भाषा के तौर तेवर देखने और पहचानने की कोशिश चलती रहती है।" (काव्य और अर्थबोध, सं. अवधेश प्रधान; पृ.60) यही वह निष्ठा है जिससे श्रेष्ठ कविता का जन्म होता है और यही वह चीज है जो अच्छे आलोचक की प्रतिष्ठा कायम करती है। कविता और कुछ नहीं, मनुष्य की सबसे पूर्ण भाषा है और इसी में वह सत्य के सबसे समीप पहुँचती है। इसलिए यहाँ कवि की परीक्षा के लिए बहुत-कुछ की जरूरत है और इसी प्रसंग में निर्णय लेना सबसे कठिन काम है। कविता के संबंध में झटपट कोई भी निर्णय दे देना खतरनाक है।

त्रिलोचन का आलोचक यह भलीभाँति जानता है। वह अपना निर्णय बहुत ठोंक कर सुनाता है। इसी निबंध में उनके शब्द हैं : "छायावाद काल में काव्य का स्तर ऊँचा है किंतु भाषा घायल दिखाई देती है। संस्कृत-गर्भित वाक्यों में हिंदी का स्वरूप खुलता नहीं दिखाई देता। इस भाषा की प्रतिक्रिया गोपालसिंह नेपाली, नरेंद्र शर्मा, बच्चन और अंचल जैसे कवियों द्वारा प्रकट हुई। पर कविता केवल आभोग के घेरे में संयोजन का समर्थ माध्यम नहीं बनती। केवल अपने आनंद और विषाद के माध्यम से अधिक लोगों को अपना नहीं बनाया जा सकता। प्रगतिवाद ने भाषा की सरलता का आग्रह किया जो उथलेपन से कम बचा। विद्रोह भी बहुधा शब्दमय ही मिलता है। कवियों ने व्यापक समाज से संबंध बनाया होता तो यह खतरा टल जाता। प्रयोगवाद में वैयक्तिक आग्रह और शालीनता का विशेष मोह छायावादी प्रवृत्तियों से अधिक दूर नहीं है। 50 के बाद के कवियों ने कुछ सँभालकर डग भरने का प्रयास किया। इसी समय उर्दू कवियों के संकलन, वैयक्तिक और सामूहिक, हिंदी में प्रकाशित होने लगे। इनका असर लेकर हिंदी काव्यभाषा ने हिंदी समाज से नाता जोड़ा। फिर भी कवियों की संस्कार-निर्मित सीमाएँ उन्हें घेर-घेरकर कहीं और कर देती थीं। लोकगीतों के अनेक संकलनों ने समाज को और गहराई से समझने का मौका दिया जिसका परिणाम कुछ अच्छा हुआ।" (वही, पृ. 61) एक लय में पूरे आधुनिक हिंदी कविता की समीक्षा कहीं देखनी हो तो त्रिलोचन के इस वाक्यांश को पढ़ लिया जाए। इसमें आलोचकीय निष्ठा पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता। त्रिलोचन का यह कथन किसी भी रचना की मौलिकता और भाषाई गरिमा प्रदान करने के लिए आवश्यक शर्त की तरह है। क्योंकि आलोचक का अंतिम निर्णय 'लोक' पर ही पहुँचता है। वह आधुनिक कविता को भी लोकगीतों से ही भाषाई ऊर्जा प्राप्त करता हुआ पातें हैं। यही आलोचना की चिर-स्थायी लोकबद्धता है। त्रिलोचन दूसरों का ऋण भी बेहिचक स्वीकार करते हुए दिखाई देते हैं -

तुलसी बाबा भाषा मैंने तुझसे सीखी
मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो।

तो दूसरी तरफ "हिंदी में कबीर अकेले ऐसे कवि हैं जो अपने ही कथ्य के कारण महत्वपूर्ण हैं। शास्त्र वे जानते नहीं थे और लोक के अनुबंधों की उन्होंने चिंता नहीं की। भाषा उनके द्वारा ऐसे रूप में आई है जिसे अनियमित पाकर पंडितों को खीझ होती है पर यह भाषा कथ्य के लिए इस प्रकार अनिवार्य है कि उसमें जरा भी संशोधन कथ्य को निस्तेज कर देगा। अनियमित हिंदी के विभिन्न प्रदेशों के, विभिन्न नगरों में, भिन्न-भिन्न रूप सुनाई पड़ते हैं जिनका समर्थ उपयोग करने वाला कहीं एक भी कवि नहीं। यानी इतने सारे वादों विवादों के बाद भी हिंदी के सिर चढ़ा मर्यादावाद ज्यों का त्यों है।" (वही, पृ.61) बकौल त्रिलोचन, वह मर्यादावादी कवि कोई और नहीं बल्कि कबीर हैं।

भाषा बहता नीर है। इसको सामाजिक संबंधों से जाना पहचाना और विवेक से काव्य का माध्यम बनाया जाता है। त्रिलोचन भाषा के इसी जनप्रभावशीलता के समर्थक हैं। उनका मानना है कि - "इसके लिए कोई खास नियम या विधान नहीं है। वैयक्तिक विवेक या शक्ति ही इसका निर्णायक तत्व है। ध्यान देने की बात है कि विद्यापति, सूर और तुलसी जैसे महाकवियों की सहायता के लिए मैथिली, ब्रजभाषा और अवधी के महाकोश या लघुकोश भी तब नहीं थे। उनकी रचनाओं की व्यापकता उनके प्रगाढ़ जन संबंधों की मूल गाँठ है।" जनता की भाषा में लिखी गई जनता की कविता ही त्रिलोचन के आलोचक पुरुष की माँग है। वे पूरी निष्ठा से कविता की इसी जनपक्षधरता की वकालत करते हैं और कॉलरिज के निकट पहुँच कर साहित्यशास्त्र के गठन की माँग करते हैं।

कॉलरिज ने कविता की परिभाषा देते हुए बतलाया था कि यह सबसे अच्छे शब्दों का सर्वश्रेष्ठ क्रम है। दूसरे शब्दों में कॉलरिज कविता को सबसे अच्छी भाषा ही मानते हैं। जैसे त्रिलोचन - 'सब कुछ सब कुछ सब कुछ सब कुछ भाषा'। हो सकता है भाषा के उद्भव और प्रकृति के संबंध में कवि की जो भी कल्पना हो, वह सब-की-सब एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण में पूरी-की-पूरी फिट न की जा सके। किंतु जब हम भाषा के समीप कवित्वपूर्ण ढंग से पहुँचते हैं, तो भाषा ही कविता बन जाती है। इसलिए किसी भी आलोचक के लिए कविता का अंतिम विश्लेषण भाषा का ही विश्लेषण बन जाता है। त्रिलोचन का आलोचक कहता है - "शब्दों का व्याकरण से भी ऊपर सामाजिक संदर्भ होता है, जिसका अनुसंधान हर रचनाकार को अलग-अलग करना पड़ता है। मजदूरों पर लिखी गई कविता सभ्य समाज पर लिखी गई कविता से भिन्न होगी ही और स्पष्ट है पंडितों को छोड़कर उसका आनंद मजदूर विशेष उठा सकेंगे। मजदूरों को बिना जाने उन पर प्रोत्साहन की ही कविताएँ लिखी जा सकती हैं। किसान जीवन की मार्मिक व्यंजना में रामनरेश त्रिपाठी जितने समर्थ मिलते हैं उतने मैथिलीशरण गुप्त नहीं। यह अंतर अनुभव के कारण है। त्रिपाठी ने सहानुभूति के कारण किसानों पर कृपा नहीं की; बल्कि अभिन्न भाव से उसमें जीवन देखा। ध्यान देने की बात है कि 'अभिन्न भाव' ही कविता को कविता बनाता है।" (वही, पृ.62) और समीक्षा का यही 'अभिन्न भाव' - आलोचक को आलोचक बनाता है - मठाधीश नहीं! आलोचना का यह विधान निःसंदेह विश्वसनीय है जिसे कोई व्यावहारिक समीक्षक ही कर सकता है, सैद्धांतिक समीक्षाशास्त्री नहीं। इसलिए वे भाषा की लहरों में जीवन की कविता को ढूँढ़ते हैं और क्रिया की गति से उसे पाने में भी सक्षम होते हैं, क्योंकि वे उस क्रिया से अभिन्न हैं :

भाषा की लहरों में जीवन की हलचल है
ध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है।

तो 'अभिन्न आलोचक' वही हो सकता है जो अच्छा (अभिन्न) पाठक भी हो। और निश्चित ही अच्छा पाठक व्यापक रुचि का होता है और वह प्रत्येक किस्म की कविता में डूबता है। अब व्यावहारिक समीक्षक को कवि की उस मानसिक स्थिति को पकड़ लेना है जिसमें उसने रचना की थी। त्रिलोचन अपने अभिन्न पाठकीय कौशल पर ही रामनरेश त्रिपाठी की मनःस्थिति को पकड़ते हैं और मैथिलीशरण गुप्त की भी मनःस्थिति को भी।

हम आधुनिक आलोचकों में एफ.आर. लिविस और आई.ए. रिचर्ड्स के आलोचना मूल्यों का परीक्षण करते हैं तो पाते हैं कि वे - शब्द पर अधिक बल देते हैं। कविता शब्दों के द्वारा ही अभिव्यक्ति पाती है। भावनाओं से नहीं। त्रिलोचन इन्हीं शब्दों की गतिशील क्रिया से अभिव्यक्ति में बल यानी उसकी निखार देखते हैं। ठीक लिविस की उस धारणा की तरह कि - जिस कवि में अनुभूति की जितनी अधिक व्यापकता होगी, जो जीवन के जितने अधिक क्षेत्र को अधिकृत करेगा वह उतना ही महान समझा जाएगा। त्रिलोचन अनुभूति के इसी व्यापक आवाजाही में - 'भाषा की लहरों में जीवन की हलचल' - पाते हैं जो अत्यंत वैज्ञानिक और व्यावहारिक है।

मेरा आलोचक एक बीज

त्रिलोचन निराला को अपना आदर्श मानते हैं यह सर्वविदित है। वे हिंदी संसार में निराला के एकमात्र वाचिक व्याख्याता के रूप में ख्यात रहे। केदारनाथ सिंह और विश्वनाथ त्रिपाठी तक ने उन्हें गुरु माना है। विश्वनाथ त्रिपाठी ने तो अपने संस्मरणों में लिखा है : "शास्त्री जी चलते-फिरते पुस्तकालय नहीं विश्वविद्यालय हैं। देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों के किसी हिंदी विभाग ने उतना काम नहीं किया होगा, उतने साहित्य संस्कारी व्यक्ति नहीं पैदा किए होंगे जितना अकेले शास्त्रीजी ने तैयार किए। बिना कोई पगार लिए। साहित्य संस्कार छींटते रहना उनका स्वभाव है। वे बहुत जानते हैं। निराला, कबीर, तुलसी, कालिदास, गालिब, रवींद्रनाथ, भूषण, बिहारी, शेक्सपियर, सरहपा आदि का अधिकांश साहित्य उन्हें कंठस्थ और सिद्ध का अर्थ यह कि उसकी वे तर्कसंगत, शास्त्रसम्मत एवं युगसम्मत व्याख्या कर सकते हैं। वे हिंदी के श्रेष्ठ काव्यार्थ-मीमांसक हैं। यह बात मैं व्यक्तिगत अनुभव से जानता हूँ और आग्रहपूर्वक कह सकता हूँ।" (मैंने त्रिलोचन को देखा है, गंगा स्नान करने चलोगे पुस्तक से)

खैर, एक बार निराला की कविता 'हिंदी के सुमनों के प्रति पत्र' की व्याख्या के लिए उन्हें 'ओर' पत्रिका के संपादक कवि विजेंद्र ने पत्र लिखा था। पहली बार त्रिलोचन ने व्याख्या लिखकर भेजी जिससे विजेंद्र संतुष्ट नहीं थे, फिर विष्णुचंद्र शर्मा के मार्फत प्रश्नोत्तरी शैली में वर्तालापनुमा व्याख्या हुई जिसे विजेंद्र ने 'ओर -14' में 'कविता की अंतर्यात्रा' शीर्षक से विस्तार से प्रकाशित किया। यहाँ बस कविता के अंतिम बंद को उद्धृत किया जा रहा है -

फल सर्वश्रेष्ठ नायाब चीज
या तुम बाँधकर रँगा धागा,
फल के भी उर का कटु त्यागा;
मेरा आलोचक एक बीज।
(निराला - हिंदी के सुमनों के प्रति पत्र)

विष्णुचंद्र शर्मा त्रिलोचन से प्रश्न करते हैं - 'हिंदी के सुमनों के प्रति पत्र' की व्याख्या करें। त्रिलोचन की व्याख्या का एक अंश - "एक अर्थ रामविलास या दूसरे करते हैं। अन्य इसे आत्मपरक कविता समझते हैं। मैं इस कविता को 'वानस्पतिक अनुभव' की कविता मानता हूँ।" (काव्य और अर्थबोध, पृ.89) आगे वे 'अग्रदूत' शब्द का अर्थ बतलाते हुए कहते हैं : "'अग्रदूत' का अर्थ है 'पतझर'। इस कविता में 'पत्र' और 'फूल' का संवाद है। पता बताता है 'मैं पतझर में जीर्ण हूँ।' जीर्ण पत्तों को निराला ने ध्यान से देखा था। उसमें 'बहुछिद्र' यह सूक्ष्म पर्यवेक्षण है - वनस्पति का। दूसरा कोई कवि उस समय प्रकृति का सूक्ष्म पर्यवेक्षक नहीं था। ...हिंदी में इसे 'आत्मपरक कविता' मानने वाले 'ईर्ष्या' का क्या अर्थ लेंगे? निराला की 'सरोज स्मृति' या दूसरी आत्मपरक कविताओं में लक्षणा का कम प्रयोग मिलता है। वे सीधी यथार्थपरक और अभिधा की शैली वाली कविताएँ हैं। ...पत्तों को सुमनों से ईर्ष्या नहीं होती। पत्ता स्वीकार करता है 'तुम तो सहज विराजे हुए हो, मुझे तुमसे कोई ईर्ष्या नहीं।' यद्यपि मैं जानता हूँ - 'मेरा चरित्र वसंत के अग्रदूत' यानी 'पतझर' का है। इसलिए मैं पेड़ के चारों ओर फैला हुआ हूँ - 'पार्श्वछवि का आज जीर्ण-साज बहुछिद्र पत्रों का समूह है।'' (वही, पृ.89) अंत में विष्णुचंद्र शर्मा के प्रश्न 'मेरा आलोचक एक बीज' और 'पत्ता एक बीज को आलोचक कैसे कहेगा?' की व्याख्या करते हुए त्रिलोचन ने कहा - "बीज रज और वीर्य के योग से बनता है। स्त्री मात्र के रज से बच्चे का रूप कभी बनता है? कभी पुरुष के वीर्य से बच्चे पर पिता का रंग-रूप झलकता है? यह पूरी प्रक्रिया तो भावुक नहीं, वैज्ञानिक विचार की प्रक्रिया है, जिसके लिए 'आलोचक' का प्रयोग बड़ा सार्थक है।" (वही, पृ.91)

त्रिलोचन के आलोचना निबंधों को प्रकाश में लाने वाले मनीषी आलोचक अवधेश प्रधान ने अभी-अभी वेंकटेश कुमार द्वारा लिए एक साक्षात्कार में कहा है जिससे निराला को लेकर त्रिलोचन की मर्मज्ञता को समझा जा सकता है। प्रधान जी त्रिलोचन के काफी करीब के लोगों में थे। उनसे हर छोटी-बड़ी बातों का जिक्र वे किया करते थे। अतः उनका कहा देखना जरूरी हो सकता है : "...त्रिलोचन निराला के भक्त थे। उन्होंने लिखा भी है कि - 'मित्रों, मैंने साथ तुम्हारा जब छोड़ा था। / तब मैं हारा थका नहीं था, लेकिन मेरा / तन भूखा था मन भूखा था। तुम ने टेरा, / उत्तर मैं ने दिया नहीं तुम को : घोड़ा था।' ...सबसे ज्यादा त्रिलोचन कार्य कर सकते थे निराला और तुलसीदास की कविता पर। लेकिन उन दोनों पर उनका लिखना नहीं हो पाया। अंतिम दिनों में सागर में रहते हुए उन्होंने निराला के गीतों की व्याख्या बोल-बोल कर लिखनी शुरू की थी। शायद 14-15 गीतों पर उन्होंने लिखा भी था। लेकिन वह सब क्या हुआ पता नहीं। कई बोरा चिट्ठियाँ और पांडुलिपियाँ सागर में उनके करीब रहने वाले उनके सेवक ने उठा कर अपने यहाँ रख लिया और लगता है वे सब नष्ट हो गईं।" (नई धारा, दिसंबर-जनवरी, 2018; पृ.26) निराला निश्चित ही त्रिलोचन के प्रिय रचनाकार थे। पर एक सीमा तक। यह प्रधान जी ने भी अपने इसी साक्षात्कार में कहा है : "...काव्य और अर्थबोध' के निबंधों से गुजरते हुए आप देखेंगे कि त्रिलोचन का जो काव्यबोध है और उनकी कविता की मर्मज्ञता विलक्षण है। पंत की कविता की आलोचना निराला ने की थी उसका त्रिलोचन ने अपने एक निबंध में जबर्दस्त खंडन किया है और पंत की कविता के मर्म को खोलते हुए बताने की कोशिश की है कि निराला से यहाँ चूक हुई है।" (वही, पृ.26) बात बिल्कुल स्पष्ट है कि त्रिलोचन अपने प्रिय और आदर्श कवि के प्रति कहीं से कृतज्ञता ज्ञापन जैसी मामूली भूमिका में नहीं आते, बल्कि उनकी आलोचना से टकराते हैं। और निश्चित ही यही टकराहट आलोचना की सृजनात्मकता है जिससे त्रिलोचन कहीं भी समझौता नहीं करते।

जैसा कि पूर्व में भी उद्धृत की जा चुकी है कि त्रिलोचन आलोचना के लिए कभी कोई 'लेबेल' या विशिष्ट की तलाश में नहीं रहते बल्कि उनके लिए आलोचना का स्रोत मात्र 'टेक्स्ट' होता है। इसके लिए वे अचर्चित रचनाकारों को भी चुनते हैं। पटना के कवि केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' के गीतिनाट्य 'संवर्त' की वे लंबी भूमिका लिखते हैं जिसमें उनकी आलोचना की सर्जनात्मकता को हम बखूबी देख सकते हैं। प्रभात आध्यात्मवादी हैं, 'संवर्त' में धर्म की बातें गुंफित हैं लेकिन त्रिलोचन की तीसरी आँख यह महसूसता है - "...'प्रभात' दर्शन के दीप्तिमंत लोक में ही नहीं भ्रमण करते रहे, उन्होंने सौंदर्य के नंदन-कानन में भी पदसंचार किया। उनके काव्य में जो माधुर्य और सौकुमार्य है, वह हिंदी की काव्य भाषा में विकास का मान निश्चित करता है।" (संवर्त, पृ. 11) रचनाकार कहता है 'वह चिता धर्म की सुलग रही, ईश्वर की सत्ता जलती है।' इस पर आलोचक त्रिलोचन कहता है : "विज्ञान की आवाज भी इसी टेक को दुहराती है। ज्ञान का प्रवेश होता है। ज्ञान ईश्वर को अरूप कहता है। रूप नश्वर है और अरूप अनश्वर है।" (वही, पृ.15) आज धर्म और नश्वर चीजों को लेकर जितनी मारकाट मची है। त्रिलोचन अपनी आलोचना में उनकी अच्छी खबर लेते हैं। त्रिलोचन कहते हैं : "आध्यात्मवादी, धर्म और ईश्वर को कल्याण का एकमात्र आश्रय घोषित करते हैं। लेकिन धर्म और ईश्वर के नाम पर आदि से अंत तक जो अत्याचार निरीह जनता पर होते रहे हैं उसके कारण अब उनके लिए उतना उत्साह नहीं रहा।" और यहीं पर त्रिलोचन कार्ल मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की प्रशंसा करते हैं। "भौतिकवाद का प्रयोग नवीनतम है; इसलिए उसकी ओर लोग आशाभरी दृष्टि से देख रहे हैं। वर्तमान समस्याओं का पूर्ण समाधान 'कार्ल मार्क्स' ने वर्गहीन समाज की स्थापना में सिद्ध किया है।" हालाँकि 'संवर्त' आध्यात्मिक आदर्शों को लेकर लिखा गया गीतिनाट्य है जिसके प्रति आलोचक की दृष्टि जाती है, कुछ यूँ कि - "संवर्त में आध्यात्मिक आदर्शों में ही कल्याण की प्राप्ति दिखलाई गई है जैसा 'कामायनी' में है। 'कामायनी' और 'संवर्त' में अंतर इतना है कि वह रोमांटिक रंगीनियों से समादृत्त है और 'संवर्त' में इसके लिए स्थान नहीं था, अन्यथा 'प्रभात' भी रंगों का खेल कम नहीं जानते।"

यह है आलोचना की शैली। बिना दोष की कोई भी कला दोयम दर्जे की मानी जाती है। गलतियों और कमियों से कला बिगड़ने की अपेक्षा और भी अच्छी बन जाती है। इसलिए इस कला पद्धति के लिए कहा गया - 'दोषरहित, दूषणसहित'। आलोचना की यह पद्धति बेशक सबसे पहले लोंजाइनस ने दिया था, तुलसी ने वाल्मीकि की वंदना के क्रम में उनकी रामायण को - 'दोषरहित, दूषणसहित' कहा था। त्रिलोचन हिंदी में 'संवर्त' की समीक्षा के बहाने इस पद्धति का नवसृजन करते हैं।


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